Team India Blind Cricket Captain Sunil Story: रहने को टूटी छत, खाने को सड़ा चावल और काली मिर्च का पानी, नेत्रहीन क्रिकेटर सुनील ने बताई अपनी रामकहानी
Team India Blind Cricket Captain Sunil Story: क्रिकेट खेलने और आगे बढ़ने का शौक सिर्फ सुविधासंपन्न लोगों को ही नहीं होता है, उन्हें भी होता है, जो अभावों में या बेहद तंगी की हालत में जीते हैं। कुछ साल पहले भारतीय राष्ट्रीय नेत्रहीन क्रिकेट टीम के कप्तान सुनील रमेश कुमार ने नेपाली टीम के खिलाफ खेलते हुए वनडे सीरीज में 3-0 से जीत दिलाई। सुनील रमेश कुमार की जिंदगी की कहानी भी काफी संघर्षपूर्ण रही है।
Team India Blind Cricket Captain Sunil Story: पिता दिहाड़ी मजदूर थे
कर्नाटक के गुद्ददुर गांव में 7 अप्रैल 1998 को जन्म लिये सुनील रमेश कुमार का बचपन बेहद तकलीफ वाली स्थिति से गुजरी। घर में बेहद गरीबी थी। पिता दिहाड़ी मजदूर थे। इतना पैसा नहीं था कि सामान्य जीवन जी सकें। इसके बावजूद सुनील ने हौसला नहीं छोड़ा और अपने दम पर कुछ करने की सोच बनाए रखी।
गरीबी का आलम यह था कि घर की छत टूटी हुई थी और अक्सर चूहे घर में आ जाते थे। इससे पूरा सामान खराब होता रहता था। खाने के लिए सड़ा हुआ चावल और काली मिर्च का पानी रहता था। हालांकि तमाम बाधाओं के होते हुए भी सुनील को अपने मां-बाप का भरपूर प्यार मिला।
सुनील के क्रिकेट के प्रति जुनून को वे समझते थे और उन्हें आगे बढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। एक इंटरव्यू में सुनील ने बताया, “बचपन से ही मुझे इस खेल से गहरा लगाव हो गया था। बहुत कम सुविधाएं भी मुझे इसे हर दिन खेलने से नहीं रोक सकीं।”
लेकिन सुनील की जिंदगी में अभी दिक्कतें और बढ़नी थी। उन्हें इतनी आसानी से कुछ हासिल नहीं होने वाला था। 2005 में एक शाम को सुनील ऐसे ही खेल रहे थे। इसी दौरान उनकी गेंद पास की झाड़ी में चली गई।
सुनील बताते हैं, “गेंद को पकड़ने की कोशिश करते समय, मैं लंबी जंगली घास वाले क्षेत्र में चला गया, जहां मैं लड़खड़ा गया और एक खुले तार पर गिर गया, जिससे मेरी दाहिनी आंख में छेद हो गया। यह बेहद गंभीर था और उस आंख की दृष्टि चली गई। शुरुआत में, मुझे नहीं पता था कि क्या हो रहा है। मैं असहनीय दर्द झेल रहा था। सौभाग्य से, मेरी बाईं आंख को चोट नहीं आई, लेकिन दाहिनी आंख की चोट से वह भी कमजोर हो गई थी।”
सुनील के माता-पिता इलाज के लिए अपना सब कुछ बेच दिये, लेकिन फिर भी ढंग से इलाज नहीं हो पाया। अंतत: आंख नहीं ही ठीक हुई। सुनील याद करते हैं, “कक्षा 7 तक मैं एक साधारण स्कूल में जाता था। जैसे-जैसे मेरी आंखें खराब होती गईं, मैंने क्रिकेट खेलना बंद कर दिया। फिर हमारे संगीत शिक्षक जयन्ना सर ने मुझे चिकमंगलूर के पास नेत्रहीन बच्चों के लिए आशा किरण नेत्रहीन आवासीय विद्यालय के बारे में बताया।”
सुनील कक्षा 8 में आशा किरण में भर्ती हो गए। वहां उन्होंने बच्चों को खेल खेलते हुए देखा और जल्द ही खुद को इसमें शामिल पाया। आखिरकार उनकी मुलाकात एक कोच बीएल गोपाल से हुई, जिन्होंने न केवल उनकी अपार प्रतिभा को पहचाना, बल्कि उन्हें इसे निखारने के लिए प्रेरित किया। वह याद करते हैं, “मैंने खुद से कहा कि अतीत में मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा है, तो क्यों न भविष्य पर ध्यान दिया जाए और जीत हासिल की जाए।”